अदम्य इच्छाशक्ति और पूर्ण समर्पण की मिसाल, प्रो.शिब प्रसाद चट्टोपाध्याय, जो प्रो. चटर्जी के नाम से भी लोकप्रिय हैं, को भारतीय भूगोल का अग्रणी माना जाता रहा है जिन्होंने एक शिक्षक, संरक्षक, लेखक, शोधकर्ता, शिक्षाविद, आयोजक और निष्पादक के रूप में एक प्रेरक और बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी रहे। वह अकादमिक योग्यता के आधार पर भूविज्ञानी थे, पेशेवर रूप से एक भूगोलवेत्ता और एक समर्पित मानचित्रकार भी थे। भारत और अन्य विकासशील देशों में भौगोलिक अध्ययन और अभ्यास इस विषय के प्रति उनकी दृढ़ भागीदारी और प्रेम के लिए हम उनके बहुत ऋणी हैं। प्रो. शिब प्रसाद चटर्जी का जन्म दिनांक 22 फरवरी 1903 को कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में हुआ था। उनका एक शानदार अकादमिक करियर रहा। उन्होंने वर्ष 1926 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से भूविज्ञान में मास्टर डिग्री प्राप्त की और फिर उच्च अध्ययन के लिए फ्रांस चले गए। उन्हें ‘ले प्लेटो डे मेघालय’ पर तत्कालीन प्रसिद्ध फ्रांसीसी भूगोलवेत्ता, ई डी मार्टन के मार्गदर्शन में भूगोल में शोध करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस अग्रणी अध्ययन की वजह से उन्हें, सोरबन में यूनिवर्सिटी डी पेरिस से डी लिट की डिग्री प्राप्त हुई, और जो अंततः वर्ष 1936 में प्रकाशित हुई।

    उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से शिक्षक का डिप्लोमा भी प्राप्त किया। इसके पश्चात उन्होंने ब्रिटिश और फ्रांसीसी शिक्षा प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया। इसी विषय पर एक शोध पत्र प्रस्तुत करने पर विश्वविद्यालय ने उन्हें शिक्षा में पीएचडी की डिग्री प्रदान की।

    1930 के दशक में भारत लौटने के बाद, प्रो. चटर्जी ने भारत में भूगोल को एक आवश्यक शैक्षणिक विषय के रूप में पेश करना आवश्यक समझा। उस समय तक, भूगोल अन्य विषयों के शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जाता था। प्रो. चटर्जी विद्यालयी स्तर पर भूगोल को अनिवार्य विषय के रूप में और कलकत्ता विश्वविद्यालय के विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम के रूप में पेश करने के लिए अधिकारियों को समझाने में कामयाब रहे। उनके अनुनय के ही कारण , भूगोल को वर्ष 1937 में शिक्षक प्रशिक्षण विभाग में, वर्ष 1939 में ऑनर्स स्तर पर और वर्ष 1941 में परास्नातक स्तर पर शुरू किया गया था। प्रयोगशालाओं की स्थापना और सबसे प्रतिष्ठित संकायों के माध्यम से अकादमिक उत्कृष्टता सुनिश्चित की गई । इन वर्षों में, विभाग ने शानदार भूगोलवेत्ता तैयार किए जिन्होंने देश और विदेश में अकादमिक संगठनों में अपनी पहचान बनाई। अपेक्षित रूप से, प्रो. चटर्जी वर्ष 1941 में विभाग की स्थापना से लेकर वर्ष 1967 में अपनी सेवानिवृत्ति तक विभाग के संस्थापक और अध्यक्ष बने रहे। तत्पश्चात वह एक अवकाशप्राप्त प्रोफेसर के रूप में बने रहे। जबकि स्कूलों के लिए भूगोल के पाठ्यक्रम को अच्छी तरह से परिभाषित किया गया था, प्रो. चटर्जी ने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों के लिए सामग्री में तरलता बनाए रखना पसंद किया। उन्होंने अपने छात्रों को न केवल पाठ्यपुस्तकें बल्कि दुनिया भर की समकालीन पत्रिकाओं और संदर्भ पुस्तकों को पढ़ने की सलाह दी। वह यह भी चाहते थे कि उनके छात्र आराम-कुर्सी भूगोलवेत्ता के बजाय कार्य-क्षेत्र में उतरें। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा यह कार्य सौंपे जाने पर , उन्होंने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों के लिए भूगोल का एक मॉडल पाठ्यक्रम तैयार करने की जिम्मेदारी भी ली, जो वर्ष 1960 के मध्य की अवधि के लिए प्रासंगिक एक अग्रणी कार्य था। अपने बाद के जीवन में, उन्होंने विद्यालई स्तर के छात्रों के लिए, बंगाली और अंग्रेजी दोनों में भूगोल की पाठ्यपुस्तकों की एक श्रृंखला लिखने का कार्य किया ।

    वर्ष 1936 में स्थापित ‘कलकत्ता जियोग्राफिकल सोसाइटी’, जिसे अब ‘जियोग्राफिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया’ के नाम से जाना जाता है, भी प्रो. एस.पी. चटर्जी के दिमाग की ही उपज थी। इस समाज की शोध पत्रिका, 'भारत की भौगोलिक समीक्षा' देश में अपनी तरह की पहली पत्रिका थी।

    प्रो. एस.पी. चटर्जी जैसे दूरदर्शी ने यह महसूस किया कि भूगोल, एक विषय के रूप में, भूमि, लोगों और संसाधनों पर संबंधित जानकारी के व्यापक विस्तार का संश्लेषण कर सकता है; कि, भूगोलवेत्ता एक नए स्वतंत्र देश में विकास योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। अर्थशास्त्रियों, इंजीनियरों, सांख्यिकीविदों के वर्चस्व वाली योजना टीमों को धीरे-धीरे अपनी टीमों में भूगोलवेत्ताओं को शामिल करने के लाभ के बारे में आश्वस्त किया गया। एक विकास योजनाकार के रूप में भूगोलवेत्ता की मूल्यवान भूमिका दृढ़ता से स्थापित हुई जब वर्ष 1948 में, उन्होंने 'बंगाल इन मैप्स' नामक मोनोग्राफ को संकलित और प्रकाशित किया। एक मॉडल के रूप में इस मोनोग्राफ के साथ, प्रो. एस. पी. चटर्जी अंततः भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री - पंडित जवाहर लाल नेहरू को 'भारत के राष्ट्रीय एटलस' के सर्वप्रथम संकलन और प्रकाशन की बात पर राजी कर सके, और एक परियोजना के तौर पर भारत सरकार द्वारा इसे वर्ष 1956 में स्वीकृति मिली। राष्ट्रीय एटलस संगठन (NAO), जिसे बाद में वर्ष 1956 में स्थापित राष्ट्रीय एटलस और विषयगत मानचित्रण संगठन (NATMO) के रूप में जाना गया, भारत में भूगोल और भूगोल के अध्ययन के लिए प्रो. चटर्जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा । प्रो. चटर्जी को संगठन का पहला मानद निदेशक नियुक्त किया गया। राष्ट्रीय एटलस संगठन की तरह एक भौगोलिक अनुसंधान निकाय की स्थापना कुछ ऐसा था जिसकी वह वर्ष 1940 की शुरुआत से योजना बना रहे थे और उसके पूर्ण होने के स्वप्न देख रहे थे । यह विचार उन्होंने जनवरी 1940 में मद्रास (चेन्नई) में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस सत्र के भूविज्ञान और भूगोल खंड में उनके ऐतिहासिक अध्यक्षीय भाषण में प्रकट किया । इस संबोधन में, उन्होंने राष्ट्रीय योजना में भूगोल की समझ की आवश्यकता पर जोर दिया और एक राष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता का संकेत दिया जो हमारे आवश्यक सर्वेक्षणों को करने में सक्षम हो और एक ही उद्देश्य के लिए देश के विभिन्न प्रकार के एटलस तैयार कर सके।अत्याधुनिक बुनियादी ढांचे या प्रशिक्षित कर्मियों के बिना किसी विकासशील देश के लिए यह आसान काम नहीं था। एक बार फिर, प्रो. चटर्जी की असाधारण आयोजन क्षमता और इच्छा-शक्ति समय की कसौटी पर खरी उतरी जब उन्होंने भारतीय सर्वेक्षण विभाग (SoI) के सेवानिवृत्त निदेशक, श्री बी.एन. साहा और प्रेसीडेंसी कॉलेज के प्रो. एस.पी. दासगुप्ता के नेतृत्व में समर्पित भूगोलवेत्ताओं का एक समूह बनाया । इस समूह ने कड़ी मेहनत की और यह उनकी मेहनत का ही नतीजा था कि नौ महीने के अंतराल में ही, भारत का पहला राष्ट्रीय एटलस - हिंदी में ‘भारत राष्ट्रीय एटलस’, वर्ष 1957 में प्रकाशित हुआ। सभी मानचित्र भारतीय सर्वेक्षण विभाग के मानचित्र मुद्रण अनुभाग में मुद्रित हुए । यह एक अद्भुत उपलब्धि थी और भारत और विदेशों में इसकी बहुत सराहना की गई।लंदन की ‘रॉयल ज्योग्राफिकल सोसायटी’ ने भूगोल की दुनिया में इस अद्वितीय योगदान के लिए प्रोफेसर चटर्जी को 'मर्चिसन ग्रांट' से सम्मानित किया। भारत सरकार आश्वस्त हो गई । राष्ट्रीय एटलस संगठन को आगामी मानचित्रण गतिविधियों के निरंतरता के लिए स्वीकृत किया गया।

    ‘रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी’ से प्राप्त हुई इस मान्यता ने प्रो. चटर्जी और नवगठित राष्ट्रीय एटलस संगठन की छवि को विषयगत कार्टोग्राफी के क्षेत्र में संभावित रूप से महत्वपूर्ण योगदानकर्ताओं के रूप में पेश किया। प्रो. चटर्जी के कुशल मार्गदर्शन में, अंतर्राष्ट्रीय मानकों को बनाए रखते हुए, प्राकृतिक भूगोल , जनसंख्या, परिवहन और पर्यटन जैसे आवश्यक विषयों पर अंग्रेजी में भारतीय क्षेत्र के मानचित्र संकलित किए गए। प्रो. चटर्जी और उनकी टीम को आठ खंडों में अंग्रेजी में 300 प्लेटों के साथ भारत के राष्ट्रीय एटलस को संकलित करने की प्रतिष्ठित परियोजना सौंपी गई, जिससे उन्हें वैश्विक समुदाय में काफी सम्मान मिला।

    प्रो. चटर्जी ने भूगोल के लिए राष्ट्रीय समिति के गठन के लिए शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार से संपर्क करके, वर्ष 1966 में भारत को अंतर्राष्ट्रीय भौगोलिक संघ (IGU) की सदस्यता दिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

    वर्ष 1964 से 1968 की अवधि तक, प्रो. चटर्जी IGU के निर्वाचित अध्यक्ष थे। लंदन में आयोजित 20वीं IGU कांग्रेस के पटल पर उनके द्वारा रखे गए प्रस्ताव के आधार पर, 21वीं कांग्रेस वर्ष 1968 में नई दिल्ली में आयोजित की गई। भारत सहित 57 देशों के 1172 प्रतिनिधियों ने इस अनूठे आयोजन में भाग लिया, जो किसी भी एशियाई, साथ ही एक विकासशील देश में आयोजित किया जाने वाला अपनी तरह का पहला आयोजन था। दिनांक 1 से 8 दिसंबर 1968 तक विज्ञान भवन, नई दिल्ली में आयोजित होनेवाले मुख्य सत्र के अलावा, देश भर में विभिन्न स्थानों पर पखवाड़े भर लंबे कांग्रेस के पहले और बाद के सत्र आयोजित किए गए। प्रो चटर्जी और उनकी टीम का उद्देश्य स्थानीय भूगोलवेत्ताओं को, जो कांग्रेस में शामिल नहीं हो सके, अपने अंतरराष्ट्रीय समकक्षों से मिलने का अवसर देना था, और साथ ही उन्हें भी भारत की व्यापक झलक मिल सके, यह देखना था। इसके अलावा, कांग्रेस के पूर्व और बाद के प्रकाशनों की एक बहुत बड़ी संख्या प्रकाशित हुई, जो किसी भी कांग्रेस आयोजन समिति द्वारा प्रकाशित किए गए प्रकाशनों की सबसे बड़ी संख्या थी।

    21वीं कांग्रेस की सफलता के बाद, प्रो. चटर्जी ने अपनी दो स्वप्निल परियोजनाओं को साकार करने के लिए सरकार से संपर्क करने में जरा सा भी समय बर्बाद नहीं किया - एक ऐसा राष्ट्रीय संगठन जो एटलस विकसित करे , और एक राष्ट्रीय भूगोल संस्थान । जब उन्हें दोनों के बीच किसी एक को चुनने के लिए कहा गया, तब उस उत्साही कार्टोग्राफर की पसंद ने ‘राष्ट्रीय एटलस एवं थिमैटिक मानचित्रण संगठन’ (NATMO) का आकार ले लिया। वर्षों से, नैटमो भारत के सर्वश्रेष्ठ भूगोलवेत्ताओं और मानचित्रकारों को नियुक्त करने में सक्षम रहा है, और उसे देश और विदेश में एक उत्कृष्ट प्रतिष्ठा प्राप्त है।

    हृदय से एक दार्शनिक, प्रो. चटर्जी का मानना ​​था कि एक शैक्षणिक विषय के रूप में भूगोल का सार मनुष्य और प्रकृति के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संबंध स्थापित करने में निहित है। साहित्य, इतिहास और दर्शन की उनकी गहरी समझ और उनका यह विश्वास कि विषयों के बीच का स्पष्ट द्वंद्व व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के उच्च स्तर पर विलीन हो जाता है,

    उनकी प्रस्तुतियों और लेखन के माध्यम से प्रस्तुत हुए। उनके उल्लेखनीय शैक्षणिक झुकाव ने उन्हें भौगोलिक विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में जैसे कि सैद्धांतिक से व्यावहारिक, भू-आकृति विज्ञान से राजनीतिक में खुद को प्रस्तुत करने की आज़ादी दी।

    प्रो. चटर्जी ने ‘Progress of Geography’ शीर्षक की एक विस्तृत ग्रंथ सूची संकलित की, जिसमें भारत के भूगोल पर विशेषज्ञों के कार्यों और योगदानों को सूचीबद्ध किया गया है। इसे वर्ष 1963 में इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन द्वारा 'फिफ्टी इयर्स ऑफ साइंस इन इंडिया' में प्रकाशित किया गया । यह कार्य अभी भी शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं द्वारा अपरिहार्य माना जाता है। वर्ष 1968 की कांग्रेस के दौरान , उन्होंने अपनी टीम के साथ '50 इयर्स ऑफ इंडियन जियोग्राफी' नामक एक पुस्तक प्रस्तुत की , जो बाद में आईसीएसएसआर(ICSSR) द्वारा प्रकाशित प्रकाशनों की श्रृंखला की प्रस्तावना स्वरूप थी, जिसका शीर्षक 'सर्वे ऑफ रिसर्च इन जीआग्रफी’ था। एक मानवतावादी के रूप में, उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक नई वैश्विक व्यवस्था की शुरुआत करने के लिए राष्ट्रों के बीच विश्वास और सद्भाव के पुनर्निर्माण पर न सिर्फ बल दिया बल्कि ग्लोबल वार्मिंग जैसे आसन्न वैश्विक परिदृश्यों के खिलाफ एकजुट होने की बात कही । ‘Geography and Culture' (1974) और Geography in the Cultural and Spiritual Life of a Nation' (1978), प्रो. चटर्जी के ये दोनों ही कार्य सांस्कृतिक भूगोल के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रखते हैं। ये दोनों व्याख्यान श्री सत्य साईं बाबा द्वारा प्रारंभ किए गए भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिकता पर ग्रीष्मकालीन पाठ्यक्रमों में दिए गए थे। ऐसी कठिन परियोजनाओं के अलावा, प्रो. चटर्जी ने भौतिक भूगोल, कृषि / आर्थिक भूगोल, सांस्कृतिक भूगोल, राजनीतिक भूगोल, क्षेत्रीय भूगोल पर कई लेख लिखे हैं जो नियमित रूप से विभिन्न शैक्षणिक पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। युवा भूगोलवेत्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए, उन्होंने स्टूडेंट्स जियोग्राफिकल एसोसिएशन, कलकत्ता की एक पत्रिका 'द ऑब्जर्वर' में भी नियमित रूप से योगदान दिया।

    एक शिक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में जॉर्जिया विश्वविद्यालय (एथेंस) और ऑस्टिन (टेक्सास) में, मॉस्को विश्वविद्यालय में और वर्ष 1963 में पेरिस और हाइडेनबर्ग विश्वविद्यालयों में और वर्ष 1970-72 की अवधि के दौरान कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

    प्रो एसपी चटर्जी सही मायने में एक महान 'कर्मयोगी' थे। एक विषय के रूप में भूगोल के प्रति उनका प्रेम उनकी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य और जिम्मेदारी की भावना के साथ विलीन हो गया, जो कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय भौगोलिक अन्वेषणों और भारतीय भूगोलवेत्ताओं के उत्थान की दिशा में उनके निरंतर प्रयासों और उपलब्धियों के माध्यम से उत्पन्न हुआ। उनके द्वारा लिए गए प्रत्येक निर्णय में, अंतर्राष्ट्रीय तकनीकी मानकों को उन सांस्कृतिक मूल्यों और दर्शन के साथ समेकित रूप से एकीकृत किया गया जो हमेशा से ही उनमें अंतर्निहित था । अपने डॉक्टरेट शोध-प्रबंध के लिए गारो-खासी-जयंतिया के बादलों से घिरे पहाड़ियों के लिए 'मेघालय' नाम गढ़ने से लेकर पश्चिमी घाटों को 'सह्याद्री', पूर्वी घाट को 'महेंद्रगिरी', रेतीले रेगिस्तान के लिए 'मरुस्थली', पथरीले रेगिस्तान के लिए 'राजस्थान बागर' और उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों के लिए ‘पूर्वांचल’ का नामकरण कर - प्रोफेसर चटर्जी ने अपनी पारंपरिक सांस्कृतिक विरासत के प्रति एक बेमिसाल जुनून को प्रदर्शित किया। भारतीय भूगोल को स्तरीय एवं मानकीकृत बनाने एवं राष्ट्रीय नियोजन में उनके योगदान के लिए, भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1985 में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया।

    प्रो. एस.पी. चटर्जी का निधन दिनांक 27 फरवरी 1989 को कोलकाता में हुआ। एक विषय के रूप में भूगोल के प्रति उनके प्रेम और जुनून और मानव जाति के उत्थान के लिए उनके ज्ञान के व्यावहारिक अनुप्रयोग को राष्ट्र द्वारा हमेशा ही याद किया जाएगा।